
✨ संवाददाता धीरेंद्र कुमार जायसवाल/ बचावव अपन परंपरा ल ✨
(डागा कॉलोनी, चांपा) चांपा।
देखते-देखते जम्मो धान लुवागे, फेर कोनो डहर दिखत नइ।
खरही अब गरीब मजदूर के बूता सिरागे, उंखर चूल्हा म आगी कइसे बरही?
खेत-खेत तय धान बेचत हस, कोठी-डोली म अन्न कहां ले भरही?
विपदा के बेरा तय रोबे संगी, खाली कोठी ले लक्ष्मी कहां झरही?
भूसा-पैरा कोठा-कोला सिरागे,
लोग लईका दूध-दही बर सुररही।
लक्ष्मी के जतन करईया नई हे,
त तोर जिनगी ह कइसे संवरही?

अपन स्वार्थ म बूढ़े रहु त,
पारा परोसी के पीरा कोन हरही?
आरी-पारी सुख-दुख तोर ऊपर लगे हे,
आही त कइसे बिसरही?
सहेजबे नहीं अपन परंपरा ल,
त लोक संस्कृति ह कइसे बगरही?
पाक्षु परा म पछताप ल परही,
जब आन मन मुड़ी म चढ़ही।
एखर सेती सही कहे गे —
“छत्तीसगढ़िया हमन सबले बढ़िया।”
बासी चटनी म मिठास हे,
गाँव के गोठ म विश्वास हे।
छत्तीसगढ़िया मन के मया जेन पाय,
ओकर जिनगी म उजियारास हे।।
ककरो घर के कोठी भरे, ककरो चुल्हा धरमाए।
मोर छत्तीसगढ़ के मया ह, जम्मो दुख हर ले जाए।।
लुगरा, गमछा, फेंटा म, गजब के शान हे।
छत्तीसगढ़िया कहाए म, खुदे महान हे।।
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