
संवाददाता धीरेंद्र कुमार जायसवाल /बलरामपुर-रामानुजगंज (छत्तीसगढ़)
“भूमि अधिग्रहण नहीं, यह तो भूमि अपहरण है” — पटवारी से लेकर रजिस्ट्री ऑफिस तक फैला है कागज़ी छल का नेटवर्क
बलरामपुर जिले की आदिवासी महिला जुबारो बाई को न कोई रजिस्ट्री की खबर थी, न पैसे मिले, न वकील से बात — फिर भी उनकी जमीन किसी शिवराम के नाम हो गई। कैसे?
📄 1. कागज़ कैसे बनते हैं — फॉर्मेटेड फ्रॉड
जैसे ही किसी आदिवासी की जमीन की जानकारी पोर्टल पर अपडेट होती है, एक रैकेट सक्रिय हो जाता है।
नकली सहमति पत्र तैयार होता है।
“कर्ज दिलाने” या “योजना का लाभ” देने के नाम पर सादे कागज़ पर दस्तखत और अंगूठा लगवाया जाता है।
फिर वही कागज़ रजिस्ट्री ऑफिस पहुंचाया जाता है, जहाँ बिना जांच के प्रक्रिया पूरी कर दी जाती है।
👥 2. कौन बनाता है ये कागज़?
पटवारी: जमीन की जानकारी और खतियान में हेराफेरी में मदद करता है।
रजिस्ट्रार/क्लर्क: सत्यापन के बिना रजिस्ट्री पास करते हैं। बिचौलिये: दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करवाते हैं।
फर्जी गवाह: हर रजिस्ट्री में वही दो नाम — जो पहले भी गवाह बने हैं।
“इस रैकेट की सबसे बड़ी ताकत है—साइलेंस। क्योंकि सबको हिस्सा मिलता है।”
🔍 3. दस्तावेज़ों की जांच में क्या सामने आया?
जुबारो बाई के सहमति पत्र पर उनकी अंगुली की छाप है। लेकिन रिकॉर्ड के मुताबिक़, उस दिन वे जिला अस्पताल में भर्ती थीं।
सवाल उठता है — क्या दस्तावेज़ फर्जी हैं? या प्रशासन की आंखें बंद हैं?
⚖️ 4. कानून क्या कहता है?
छत्तीसगढ़ भू-अर्जन अधिनियम और अनुसूचित जनजाति सुरक्षा अधिनियम के अनुसार:
बिना ज़िला कलेक्टर की अनुमति
बिना स्पष्ट सहमति
और बिना बाजार मूल्य भुगतान के
आदिवासी भूमि की रजिस्ट्री गैर-आदिवासी के नाम अवैध है।
यहां तीनों शर्तें नहीं पूरी हुईं।
❓ 5. अब सवाल यह है:
क्या राजस्व विभाग इस फर्जीवाड़े में खुद शामिल है?
क्या कोई जांच अधिकारी इन फ़ाइलों को खोलेगा?
क्या जुबारो बाई और जैसी दर्जनों औरतें कभी न्याय पाएंगी?
📍 अगले भाग में पढ़िए:
“भरोसे की कब्र: आदिवासी जमीनों पर कब्ज़े का सिस्टम” जहां हम दिखाएंगे कि कब्ज़ा सिर्फ ज़मीन पर नहीं, कानून की चुप्पी पर भी होता है।
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