
संवाददाता धीरेंद्र कुमार जायसवाल/समाज के नाम एक खुला पत्र “मौत की भी हिस्सेदारी तय कीजिए“
✍️ एक शिक्षक की आत्मा से….
आदरणीय समाजजन,
मैं एक शिक्षक हूं —
वह अंतिम पंक्ति पर खड़ा वह व्यक्ति,
जिसे हर दुर्घटना के बाद सबसे पहले दोषी ठहराना
हमारे तंत्र को सबसे आसान उपाय लगता है।
आज मैं कोई सवाल नहीं पूछता।
मैं केवल एक सच्चाई की चिट्ठी आपके सामने खोल रहा हूं।
हर सरकारी निर्माण — चाहे विद्यालय भवन हो, सड़क हो या शौचालय —
“हिस्सेदारी“ से शुरू होता है।
ठेकेदार, अभियंता, विभाग, जनप्रतिनिधि —
सभी का “हिस्सा” पहले तय होता है।
जब सबका हिस्सा पूरा हो जाता है,
तो निर्माण को पूर्ण मान लिया जाता है —
चाहे वह भवन भीतर से कितना ही खोखला क्यों न हो।
काम की गुणवत्ता नहीं, बल्कि फाइल की औपचारिकता ही प्रमाण बन जाती है।
NOC मिल जाती है, भले ही छत गिरने को तैयार हो।

लेकिन जब वही छत गिरती है,
जब दीवारें बच्चों की लाशों पर ढहती हैं,
जब स्कूल श्मशान में तब्दील हो जाता है —
तो एक ही नाम गूंजता है: “शिक्षक”!
क्यों?
क्या टेंडर शिक्षक ने पास किया था?
क्या निर्माण सामग्री शिक्षक ने खरीदी थी?
क्या निरीक्षण प्रमाण-पत्र शिक्षक ने जारी किया था?
नहीं।
फिर भी हर जांच रिपोर्ट में यही लिखा जाता है —
“प्राथमिक दृष्टया शिक्षक की लापरवाही प्रतीत होती है।”
अब मेरी आपसे गुजारिश है —
जिस तरह निर्माण में हिस्सेदारी तय होती है,
उसी तरह मौत की भी हिस्सेदारी तय कीजिए।
ठेकेदार कितना दोषी?
अभियंता ने निरीक्षण क्यों नहीं किया?
पंचायतों और विभागों ने निगरानी क्यों नहीं रखी?
और शिक्षक?
वह तो बस एक अभिभावक था —
जो बच्चों को पढ़ाने आया था,
ना कि मलबे से शव निकालने।
समाज से निवेदन है —
हमें बार-बार बलि का बकरा मत बनाइए।
हमें दोष नहीं, सहयोग दीजिए।
हमें भाषण नहीं, मजबूत भवन दीजिए।
वरना वह दिन दूर नहीं जब
शिक्षक को टिफिन के साथ संजीवनी भी लानी पड़ेगी — क्योंकि अब स्कूल भवनों पर भरोसा नहीं रहा।
यह केवल एक शिक्षक की नहीं,
पूरे शिक्षा-तंत्र की आत्मा की आवाज है।
इसे सुनिए —
इससे पहले कि अगली दीवार फिर किसी मासूम पर गिर जाए। — एक शिक्षक और छात्र-छात्रा (भावना समझिए)