
संवाददाता धीरेंद्र कुमार जायसवाल |
बलरामपुर-रामानुजगंज, छत्तीसगढ़।
“कानून कहता है: आदिवासी ज़मीन सिर्फ आदिवासी को बेची जा सकती है। लेकिन हकीकत कहती है: जिसके पास पैसा है, वही मालिक है।”
छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल में ज़मीन कब्जाने का एक सुनियोजित तंत्र काम कर रहा है। खासकर पहाड़ी कोरवा समाज की ज़मीनें अब खेती के लिए नहीं, बल्कि शोषण के लिए हथियाई जा रही हैं। दलालों से लेकर सरकारी तंत्र तक — सभी की चुप्पी इस सिस्टम को ताक़तवर बना रही है।
🛑 कैसे होता है कब्जा? — जानिए पूरा मॉडल
🔳 1. भरोसे का जाल:
“मैं लोन दिलवा दूँगा”, “शादी में मदद करूंगा” — सेठ पहले दोस्त बनता है।
🔳 2. सादे कागज़ों पर अंगूठा:
अनपढ़ आदिवासियों से दस्तखत ले लिए जाते हैं। बाद में वही दस्तावेज़ रजिस्ट्री या कब्ज़ा प्रमाण बन जाते हैं।
🔳 3. दखल की शुरुआत:
मजदूर खेत में आते हैं, तारबंदी होती है और पुलिस को बता दिया जाता है — “ज़मीन हमारी है।”
🔳 4. विरोध पर दमन:
107/116 में चालान, झूठे केस, और थाना स्तर पर ‘समझौता’ का दबाव। कभी-कभी आत्महत्या तक की नौबत।
👥 सिस्टम में कौन-कौन शामिल?
🔹 ग्राम सचिव: गुमराह दस्तावेज़ों पर पंचायत की मुहर।
🔹 पटवारी: नक्शा और रिकॉर्ड में फेरबदल।
🔹 तहसीलदार: “देख रहे हैं” कहकर फाइल दबा देते हैं।
🔹 पुलिस: शिकायत पर जवाब — “सिविल मामला है, कोर्ट जाओ।”
📊 जमीनी केस स्टडी
🔘 भैराराम (कोरवा):
रजिस्ट्री के बाद ज़मीन खाली करने दबाव, बार-बार धमकी, अंततः आत्महत्या।
🔘 छेदीलाल (उराँव):
10 एकड़ ज़मीन पर कब्जा। विरोध किया तो मारपीट व चोरी के झूठे केस में जेल।
🔘 सीता बाई (कोरवा):
खेत बेचा, पेमेंट नहीं मिला। अब उसी खेत में मज़दूरी कर रही है।
⚖️ कानून है, लेकिन असर नहीं:
🟤 SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम:
🟤 छत्तीसगढ़ भू-अधिकार संरक्षण कानून:
🟤 राजस्व संहिता की धारा 170-B:
इन सबमें सख्त प्रावधान हैं, पर कार्रवाई का नाम नहीं। कोई तहसीलदार, सचिव या पटवारी दोषी नहीं ठहराया जाता। हर शिकायत “निराकृत” लिखकर बंद कर दी जाती है।
❓ जनप्रतिनिधि क्यों चुप हैं?
सरपंच से लेकर विधायक तक — कोई आवाज़ नहीं उठाता। क्या सत्ता और सेठ के गठजोड़ में सब कुछ तय हो चुका है?
📍 अगले भाग में पढ़िए:
👉 “खामोश पुलिस, ताक़तवर दलाल: स्थानीय सत्ता का अंधा गठजोड़”
जहां हम दिखाएंगे कि थाना भी ‘मग्गू सेठ’ से कांपता है।
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