
ब्यूरो चीफ हरिराम देवांगन/ शिक्षा के अग्नि कुंड में बढ़ती फीस – अभिभावकों की मजबूरी बनती महा पूर्णाहुति
छात्र और अभिभावक बनते जा रहे हैं निजी स्कूल संचालकों के प्यादे
जिला उपमुख्यालय चांपा आज की शिक्षा व्यवस्था बाजारवाद का जीवंत उदाहरण बन चुकी है। जहां कभी शिक्षा सेवा और संस्कार का माध्यम हुआ करती थी, वहीं अब वह एक मुनाफे का कारोबार बन गई है। चार कमरों को जोड़कर स्कूल का नाम देने वाले संस्थानों की बाढ़ सी आ गई है। आकर्षक नाम, रंगीन यूनिफॉर्म और अंग्रेज़ी माध्यम के नाम पर अभिभावकों को लुभाने की होड़ मची हुई है।
गुरुकुल से बाजार तक – शिक्षा का बदलता स्वरूप
कभी गुरुकुलों में ज्ञान दान होता था, वह भी निःशुल्क। लेकिन आज, एक सामान्य सी कक्षा के लिए भी हजारों-लाखों की फीस वसूली जा रही है। अगर अभिभावक सवाल करें, तो स्कूल प्रबंधन तरह-तरह के बहाने लेकर सामने खड़ा हो जाता है – स्मार्ट क्लास, एक्स्ट्रा एक्टिविटीज़, इंफ्रास्ट्रक्चर मेंटेनेंस और ना जाने क्या-क्या।
शिक्षा या शोषण – सवाल वही, जवाब नहीं
हर साल फीस में बढ़ोतरी अब एक परंपरा बन चुकी है। वही स्कूल बिल्डिंग, वही शिक्षक, वही किताबें – फिर क्यों हर वर्ष अभिभावकों की जेब ढीली होती जा रही है? इस प्रश्न का कोई सीधा जवाब आज तक किसी निजी स्कूल ने नहीं दिया।
नीतियों का अभाव, मनमानी की खुली छूट
सरकारें – चाहे राज्य की हो या केंद्र की – इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। न कोई ठोस नीति, न कोई नियामक संस्था जो इन स्कूलों पर अंकुश लगा सके। इसका नतीजा यह है कि शिक्षा अब सेवा नहीं, व्यापार बन गई है – जिसमें ग्राहक हैं मासूम बच्चे और उनकी मेहनतकश माता-पिता।
निष्कर्ष
शिक्षा का यह व्यापारीकरण समाज के लिए एक चिंताजनक संकेत है। यदि इस पर समय रहते लगाम नहीं कसी गई, तो शिक्षा की गुणवत्ता से अधिक उसका खर्च ही आने वाली पीढ़ियों का भविष्य तय करेगा। यह समय है जब सरकार, प्रशासन और समाज को मिलकर इस विषय पर गंभीर चिंतन और कार्रवाई करनी चाहिए।